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Update Google Chromeबीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में देश में अनेकानेक सामाजिक, सेवाभावी एवं सांस्कृतिक संगठनों का उद्भव एवं विकास हुआ। इन संगठनों में, जिस संगठन ने भारतीय दर्शन एवं मूल्यों को केन्द्र बिन्दु मानकर सेवा एवं संस्कारों के विविध पारिवारिक एवं सामाजिक प्रकल्पों को अपने हाथ में लेकर भारत में मानव शक्ति के सम्पूर्ण एवं सर्वांगीण विकास का संकल्प लिया है, जिसने राष्ट्रीय दृष्टिकोण को प्रखर बनाने में अपनी विशिष्ट भूमिका का निर्वहन किया है और जिसने भारतीय जन-मानस में भारतीय संस्कारों के ज्ञान एवं अनुपालन का सरित-प्रवाह करके एक जन-आन्दोलन का सृजन किया है, उस संगठन का नाम है- भारत विकास परिषद्।
संगठन का नामकरण तीन शब्दों के संयोग पर आधारित है- ‘भारत’, ‘विकास’ और ‘परिषद्’। भारत का अर्थ मात्र भारत की भौगोलिक सीमाओं से नहीं है, वरन् इसमें विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के व्यक्ति भी शामिल हैं। ‘भारत’ शब्द में भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति, भारतीय कला, भारतीय मूल्य, भारतीय साहित्य और शिक्षा, भारतीय संस्कार इत्यादि विविध भारतीय आयाम शामिल हैं। ‘विकास’ शब्द इन भारतीय आयामों के प्रचार, संरक्षण एवं सम्वर्द्धन से जुड़ा है। विकास का अर्थ ‘प्रस्फुटीकरण’(Unfoldment) भी होता है, जिसका सन्दर्भ प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान देवत्व गुणों को बाहर लाकर समाज के विकास में उसके सदुपयोग के लिये प्रेरणा एवं वातावरण का सृजन करना है। डॉ॰ एल॰एम॰ सिंघवी के शब्दों में भारत के विकास का अर्थ है ‘‘भारतीयता का विकास’’, भारतीय मनीशा और मानवता का उन्मेश, भारतीय मूल्यों और परम्पराओं का उत्कर्ष, भारतीय संवेदना का विस्तार, भारत के जनगण की जीवन शैली में पुरातन एवं अधुनातम का समन्वय, भारतीय ऊर्जा की अभिव्यक्ति और व्यक्ति की गरिमा तथा देश की एकता की सुरक्षा। यह महत्वपूर्ण है कि संगठन एक ‘क्लब’ नहीं परिषद् है। परिषद् की धारणा गम्भीर विचार विमर्श, अनुशासन, तार्किक निर्णय, नियमबद्धता और वैचारिक क्रान्ति जैसे पहलुओं से जुड़ी है। संक्षेप में परिषद् सेवा की गंगा है जिसमें स्नान करोगे तो तर जाओगे; यह संस्कारों का मन्दिर है जिसमें पूजा करोगे तो निखर जाओगे, यह सम्पर्क, सहयोग और समर्पण की बगिया है, जिसमें टहलोगे तो महक जाओगे। यह कोई क्लब नहीं है, जिसमें जाने-अनजाने बहक जाओगे।’’
अक्टूबर 1962 में जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया तो भारत की सेनाओं के पास उचित रूप से मुकाबला करने के लिये न तो हथियार और न हिमालय की भयंकर शीत में शरीर ढकने के लिये पर्याप्त वस्त्र थे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने चीन के इस आक्रमण से भारतीय सीमा की रक्षा हेतु एक टास्कफोर्स (Task Force) का गठन किया। लोगों के हृदय में उस सेना के प्रति स्वाभाविक कृतज्ञता का भाव जागृत हो उठा। दिल्ली के अशोका होटल में जनरल के॰ एस॰ करियप्पा और लाला हंसराज गुप्ता ने नेतृत्व में लगभग 400 प्रबुद्ध एवं सम्भ्रान्त लोगों के साथ टास्कफोर्स का स्वागत एवं अभिनन्दन किया गया। इस कार्यक्रम से उत्साहित होकर डॉ॰ सूरज प्रकाश ने दिल्ली में एक ‘सिटिजन कौंसिल’ या जनमंच की स्थापना की।
12 जनवरी 1963 को स्वामी विवेकानन्द की जन्म शताब्दी समारोह ने भारतीयों में पुनः नवजीवन का संचार किया क्योंकि उस संन्यासी ने अकेले ही भारतीय संस्कृति, भारतीय धर्म और भारतीय गौरव की ध्वजा को पूरे विश्व में लहराया था। इस समारोह के अवसर पर ‘सिटिजन कौंसिल’ का नया नामकरण ‘भारत विकास परिषद्’ किया गया। स्पष्ट है कि इस परिषद् की परिकल्पना समाज के कुछ प्रबुद्ध, प्रतिष्ठित तथा राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत व्यक्तियों के अनुकरणीय आचार-विचारों का जीवन्त एवं व्यावहारिक परिणाम है, जिन्होंने व्यापक सम्पर्क, संस्कारयुक्त समाज, निर्विकार सेवा और निश्चल समर्पण के सूत्रों को आत्मसात् करते हुए वर्ष 1963 में दिल्ली में इसकी स्थापना की। डॉ॰ एल॰एम॰ सिंघवी ने एक संदेश में लिखा था कि ‘भारत विकास परिषद् हमारी अस्मिता की और हमारे उन्मेश की तीर्थयात्रा का पर्याय है। मैंने भारत विकास परिषद् को एक प्रयोजनशील सम्पर्क, सहृदय सहयोग, आधारभूत संस्कार, सहानुभूति और करुणा से प्रेरित सेवा एवं निष्ठा से अभिमण्डित समर्पण की तीर्थयात्रा के रूप में संकल्पित किया था।’
यद्यपि परिषद् की संकल्पना 12 जनवरी 1963 को हो गयी थी लेकिन इसको साकार रूप 10 जुलाई 1963 को मिला, जब इसके पंजीयन का प्रमाण पत्र मिला और उसी दिन कनाट प्लेस स्थित मरीना होटल में इसकी प्रथम बैठक आयोजित की गयी। इसके प्रथम मुख्य संरक्षक का भार सर्वोच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश एवं प्रसिद्ध विचारक श्री वी॰पी॰ सिन्हा को सौंपा गया। इसके प्रथम अध्यक्ष महान् राष्ट्रवादी एवं दिल्ली के भूतपूर्व महापौर लाला हंसराज गुप्ता एवं प्रथम महामंत्री सेवाभावी सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ॰ सूरज प्रकाश बने। भारत माता को आराध्य और स्वामी विवेकानन्द को पथ प्रदर्शक स्वीकार किया गया। ‘वन्दे मातरम्’ को प्रारम्भिक प्रार्थना और राष्ट्रगान ‘जनगणमन’ को समाप्त गीत का स्थान दिया गया। परिषद् के आयोजन में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए डॉ॰ एल॰एम॰ सिंघवी ने आह्वान किया था कि ‘राजधानी की एक अट्टालिका की छत पर बैठकर प्रीतिभोज के पश्चात् सभा विसर्जित कर देने में भारत का विकस कैसे सार्थक और अग्रगामी हो। ..............भारत के विकास की तीर्थयात्रा में समूचे भारत के सपनों और संकल्पों को जोड़ना होगा। भारत विकास परिषद् को भारत व्यापी बनाना होगा, सम्पर्क के स्रोत से भारतीय जनशक्ति की गंगा को समर्पण तक ले जाने के लिये भारत विकास परिषद् को भागीरथ बन कर समर्पित अभियान और आन्दोलन का अश्वमेध यज्ञ करना होगा। बस यहीं से प्रारम्भ हो गयी दिल्ली की गंगोत्री से परिषद् की शाखाओं का प्रवाह और 1968 में दिल्ली से बाहर परिषद् की प्रथम शाखा देहरादून (उत्तराखण्ड) में स्थापित की गई और आज कश्मीर से कन्याकुमारी तक तथा गुजरात से असम तक पूरे देश में परिषद् सेवा और संस्कार प्रकल्पों का संचालन करने वाली गैर-सरकारी संगठन के रूप में प्रतिष्ठित रूप से अधिष्ठापित हो चुकी है।
परिषद् का प्रथम दशक परिषद् के दर्शन को सुदृढ़ करने और इसकी आधारशिला को सुदृढ़ करने की अवधि रही, जिसमें राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में सतत् रूप से लाला हंसराज गुप्ता का सबल नेतृत्व और दूरदर्शी मार्गदर्शन प्राप्त हुआ। यद्यपि इस अवधि में शाखाओं की संख्या एक से बढ़कर मात्र 10 और सदस्यों की संख्या 101 से बढ़कर 500 तक पहुँच पायी लेकिन इस अवधि में सन् 1967 में परिषद् के प्रथम और अति लोकप्रिय संस्कार प्रकल्प राष्ट्रीय समूहगान प्रतियोगिता का शुभारम्भ हुआ। सन् 1969 में परिषद् के मुख पत्र ‘नीति’ के प्रकाशन कार्य का श्री गणेश हुआ तथा परिषद् के दिशाबोध के प्रथम स्थायी स्तम्भ के रूप में सन् 1973 में दिल्ली में मिन्टो रोड के निकट छत्रपति महाराज शिवाजी की विशाल मूर्ति स्थापित की गयी। मूर्ति का अनावरण तत्कालीन राष्ट्रपति श्री वी॰वी॰ गिरि द्वारा किया गया।
परिषद् प्रगति के इस दशक का शुभारम्भ प्रसिद्ध न्यायविद् एवं संविधान मर्मज्ञ डॉ॰ लक्ष्मीमल्ल सिंघवी द्वारा अप्रैल 1973 में परिषद् के अध्यक्ष पद को अलंकृत करने से हुआ। पूरे दशक में उनका सुविचारित मार्गदर्शन परिषद् को मिला। इस अवधि में परिषद् के सदस्यों के संकल्प की रचना की गयी, संस्था के लक्ष्य और आदर्शों के आधार पर ज्ञान के प्रतीक उगते हुय सूरज और समृद्धि के प्रतीक खिलते कमल को मिलाकर परिषद् के प्रतीक चिह्न का सृजन किया गया। वर्ष 1978 में परिषद् का पहला अखिल भारतीय अधिवेशन दिल्ली में आयोजित हुआ तथा राष्ट्रीय महामंत्री डॉ॰ सूरज प्रकाश जी के साथ शाखा विस्तार में श्री पी॰एल॰ राही को भी विशिष्ट भूमिका दी गयी। 1982 तक परिषद् की शाखाओं की संख्या 30 तक पहुँच गयी। संगठन को सुदृढ़ करने के लिये एक राष्ट्रीय शासी मण्डल का गठन किया गया तथा परिषद् की गूँज उत्तर भारत से फैलकर दक्षिण भारत तक पहुँच गयी, जब राष्ट्रीय अधिवेशन 1982 में कोचीन में और 1983 में हैदराबाद में आयोजित किये गये।
इस दशक के प्रारम्भ में परिषद् विकास की स्वयं-स्फूर्ति अवस्था में आ गयी थी। सन् 1985 में अध्यक्षीय नेतृत्व डॉ॰ एल॰एम॰ सिंघवी के ब्रिटेन में उच्चायुक्त बन जाने के कारण न्याय-प्रियता एवं निर्भीकता के लिये पूरे विश्व में विख्यात सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके न्यायमूर्ति हंसराज खन्ना के सक्षम हाथों में आ गया। इस अवधि से परिषद् के चतुर्मुखी विकास एवं विस्तार की कहानी प्रारम्भ होती है। जबकि 1983-84 में शाखाओं की संख्या 39 से बढ़कर 1993-94 में 286 हो गयी और इनमें सदस्यों की संख्या 1,560 से बढ़कर 11,440 पर पहुँच गयी। इसी अवधि में सुप्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा परिषद् के संरक्षक के रूप में जुड़ीं। परिषद् की कार्य व्यवस्था को सुगठित रूप से संचालित करने के लिये परिषद् के प्रथम चार मूल मंत्र-सम्पर्क, सहयोग, संस्कार और सेवा की संकल्पना करके उनके अतिरिक्त विभिन्न प्रकल्पों को जोड़ा गया। कार्यकर्त्ताओं एवं पदाधिकारियों को परिषद् की कार्यपद्धति में दक्ष करने के लिये कार्यशालाओं के आयोजन का शुभारम्भ किया गया। दक्षिण भारत के प्रमुख शहरों विशाखापट्टनम, विजयवाड़ा और हैदराबाद में परिषद् की शाखाओं की स्थापना की गयी। 1986 में जनसम्पर्क के एक विशिष्ट प्रकल्प संस्कृति सप्ताह का श्री गणेश किया गया। 1988 में ‘नीति’ पत्रिका का प्रकाशन मासिक किया गया। 1988 में ही परिषद् की स्थापना के 25 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में रजत जयन्ती वर्ष का भव्य आयोजन किया गया। वर्ष 1990 में परिषद् का स्वयं का पहला विकलांग सहायता केन्द्र दिल्ली में दिलशाद गार्डन में स्थापित किया गया।
परिषद्-प्रगति के इस दशक में पूरे देश में परिषद् की अपनी एक विशिष्ट पहचान बनी, लेकिन इसी अवधि में परिषद् को दो अपूर्णनीय क्षति हुई। इसके संस्थापक राष्ट्रीय अध्यक्ष लाला हंसराज गुप्ता 3 जुलाई 1985 को और लगभग तीन दशकों तक परिषद् के क्रियाकलापों के सक्रिय संचालक तथा परिषद् के संस्थापक राष्ट्रीय महामंत्री डॉ॰ सूरज प्रकाश जी 2 फरवरी 1991 को देवालीन हो गये। फरवरी 1991 में श्री पी॰एल॰ राही ने राष्ट्रीय महामंत्री का कार्यभार स्वीकार किया तथा परिषद् विस्तार को और अधिक संगठित, व्यवस्थित एवं तीव्र करने का संकल्प लिया। सन् 1992 में कर्नाटक के पूर्व राज्यपाल श्री गोविन्द नारायण तथा जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल श्री जगमोहन जैसे अति-प्रतिष्ठित व्यक्तित्व राष्ट्रीय उपाध्यक्षों के रूप में परिषद् की गरिमामयी गाथा से जुड़ गये। 1992 में ही कनाडा में परिषद् की प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय शाखा की स्थापना हुई।
इस दशक के प्रारम्भ से ही परिषद् प्रगति का कारवाँ देश के लगभग सभी भागों में तेजी से बढ़ने लगा। इस अवधि में राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में न्यायमूृर्ति हंसराज खन्ना (मार्च 2000 तक), न्यायमूर्ति एम॰ रामा जॉयस (अप्रैल 2000 से फरवरी 2003 तक) तथा न्यायमूर्ति जितेन्द्रवीर गुप्ता (फरवरी 2003 से अक्टूबर 2003 तक) का नेतृत्व मिला तो राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में मार्च 2000 तक श्री पी॰एल॰ राही ने परिषद् के तीव्र विस्तार और अप्रैल 2000 से श्री आर॰पी॰ शर्मा ने परिषद् के सुगठित संगठन प्रारूप के द्वारा परिषद् कार्यकलापों को प्रभावी और प्रतिष्ठित स्वरूप प्रदान किया। प्रारम्भ में परिषद् को 5 क्षेत्रों के स्थान पर 9 क्षेत्रों में और वर्ष 2001 में 9 के स्थान पर 13 क्षेत्रों में पुनः संगठित किया गया।
परिषद् प्रगति के इस दशक में सेवा और संस्कार के अनेक नये प्रकल्पों का सृजन और पुराने प्रकल्पों का विस्तार हुआ। राष्ट्रीय समूहगान की बढ़ती लोकप्रियता को ध्यान में रखकर 1994 में ‘चेतना के स्वर’ पुस्तिका का प्रकाशन किया गया। इस अवधि में विकलांग पुनर्वास केन्द्रों के कार्यों का विस्तार किया गया, गुरु तेगबहादुर फाउण्डेशन की स्थापना की गयी, वनवासी कल्याण योजना को प्रभावी बनाया, सेवा निवृत्त व्यक्तियों के अनुभव और ऊर्जा का लाभ उठाने के लिये विकास समर्पित योजना प्रारम्भ की गयी, वन्दे मातरम् प्रतियोगिता शुरू की गई तथा वर्ष 2001-02 में ‘भारत को जानो’ प्रतियोगिता एवं गुरुवंदन छात्र अभिनन्दन को राष्ट्रीय प्रकल्पों के रूप में स्वीकार किया गया। बाल, युवा और परिवार संस्कार शिविरों की शृंखला व्यापक की गई। गुजरात में चलने वाली ‘समुत्कर्ष’ संस्था का भारत विकास परिषद् में विलय हो गया।
वर्ष 1998 में परिषद् के मूल मंत्रों में पाँचवाँ मन्त्र ‘समर्पण’ जोड़ा गया। इसी अवधि में पश्चिम बंगाल, असम, गोवा जैसे दूरस्थ स्थानों पर भी परिषद् का कार्य प्रारम्भ हुआ। वर्ष 2001 में कनाडा के जिन्दल फाउण्डेशन के सहयोग से समग्र ग्राम विकास योजना का श्रीगणेश हुआ।
इस दशक की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि दिल्ली के पीतमपुरा में 8 अक्टूबर 1997 को केन्द्रीय भवन का शिलान्यास और 2000 में इस भवन का उद्घाटन था जो आज दुमंजिले सुव्यवस्थित एवं सुसज्जित भवन के रूप में देश भर में परिषद् के क्रियाकलापों का नियोजन, निर्देशन एवं समन्वय कर परिषद् की कार्य पद्धति में केन्द्रीय गतिवर्द्धक बन गया है।
परिषद् के स्वर्ण जयन्ती वर्ष पर पूर्ण होने वाला परिषद् प्रगति का पाचवाँ दशक इसकी सदस्य संख्या में तीव्र विस्तार का साक्षी है। वर्ष 2003-04 में 768 शाखाएँ और 29,862 दम्पत्ति सदस्यता थी, जो 2011-12 में बढ़कर क्रमशः 1,147 तथा 50,127 हो गयी। राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में न्यायमूर्ति एस॰ पर्वता राव (नवम्बर 2003 से मार्च 2004), न्यायमूर्ति डी॰ आर॰ धानुका (2004-2008) तथा श्री आर॰पी॰ शर्मा (2008-12) का मार्गदर्शन मिला तो राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में श्री आर॰पी॰ शर्मा (मार्च 2004 तक), श्री आई॰डी॰ ओझा (2004-08) तक तथा श्री वीरन्द्र सभ्भरवाल (2008-2010) ने परिषद् की विकास की गति को तीव्र तथा विस्तार की दिशा को चतुर्मुखी बनाने में अपना सक्रिय योगदान दिया। अप्रैल 2012 से न्यायमूर्ति वी॰एस॰ कोकजे अध्यक्ष के रूप में तथा अप्रैल 2010 से श्री एस॰के॰ वधवा राष्ट्रीय महामंत्री के रूप में परिषद् के स्वर्णिम लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सतत् प्रयासरत हैं, जिसमें अप्रैल 2012 से राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में प्रो॰ एस॰पी॰ तिवारी और अप्रैल 2010 से राष्ट्रीय वित्त मंत्री के रूप में डॉ॰ के॰एल॰ गुप्ता निर्वाचित सहयोगी के रूप में योगदान दे रहे हैं।
इस दशक में जिन्दल फाउण्डेशन के सहयोग से चल रहे ग्रामों की एकीकृत विकास योजना को विशिष्ट गति मिली और अब तक देश के विभिन्न भागों में 16 गाँव विकसित किये जा चुके हैं। प्राकृतिक आपदा के समय तुरन्त वित्तीय सहायता उपलब्ध कराने के लिये कॉर्पस कोष (Corpus Fund) बनाने के लिये ‘विकास मित्र’ योजना प्रारम्भ की गई, जिसमें बाद में ‘विकास रत्न’ योजना को जोड़ा गया। दोनों ही योजनाओं को परिषद् के सदस्यों का पूर्ण सहयोग मिला। वर्ष 2011-12 से इस फण्ड के आधार पर स्थायी प्रकल्पों के लिये मशीनों एवं उपकरण क्रय करने हेतु केन्द्र से वित्तीय सहायता प्रदान करने की योजना प्रारम्भ की गयी है।
वर्ष 2004 में वैचारिक मंथन से जुड़ी पत्रिका ‘ज्ञान प्रभा’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया, 2006 में संस्कृत समूहगान एवं लोकगीत प्रतियोगिता को राष्ट्रीय स्तर पर शुरू किया गया। 2007 में परिषद् के मिशन के रूप में ‘स्वस्थ, समर्थ और संस्कारित भारत’ की संकल्पना को स्वीकार किया गया। वर्ष 2007-08 से परिषद् के संस्थापक राष्ट्रीय महामंत्री डॉ॰ सूरज प्रकाश की स्मृति में ‘उत्कृष्टता सम्मान’ योजना का श्रीगणेश किया गया। परिषद् में महिला सहभागिता को सशक्त बनाने के लिये वर्ष 2011 से राष्ट्रीय स्तर पर महिला सहभागिता एवं कार्यकर्त्ता प्रशिक्षण कार्यशालाओं का आयोजन शुरू किया गया। प्रगति के इस दशक में परिषद् साहित्य के प्रकाशन में उल्लेखनीय प्रगति हुई तथा सम्पर्क की आधुनिक तकनीक के रूप में परिषद् की अति-विस्तृत वेबसाइट बनायी गयी। देश में स्थायी प्रकल्पों की संख्या भी 1,457 तक पहुँच गयी है।
स्वामी विवेकानन्द के उत्तरशताब्दी जयन्ती वर्ष के उपलक्ष में 12 जनवरी 2012 को परिषद् के केन्द्रीय भवन में स्वामी विवेकानन्द की भव्य प्रतिमा को अधिष्ठापित किया गया और देश भर में शाखाओं से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक अनेकानेक कार्यक्रम आयोजित किये गये। 10 जुलाई 2013 को परिषद् अपनी स्थापना के 50 वर्ष पूर्ण कर लेगी और 2013 का वर्ष स्वर्ण जयन्ती वर्ष के रूप में सभी स्तरों पर परिषद् की विशिष्ट उपलब्धियों, स्थायी प्रकल्पों और अनेकानेक कार्यक्रमों के आयोजनों का साक्षी सिद्ध होगा।
कुल मिलाकर यह परिषद् सुसंस्कृत, संभ्रान्त तथा प्रतिष्ठित देशव्यापी संगठन के नाते गत पचास वर्षों से सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर निरन्तर एवं प्रगतिशील संगठ के रूप में कार्य कर रहा है। इसकी पहचान केवल सांस्कृतिक धरातल पर ही नहीं वरन् सेवा के क्षेत्र में भी है। प्राकृतिक आपदाओं और राष्ट्रीय चुनौतियों के समय भी यह संगठन अपने उत्तरदायित्वों की कसौटी पर खरा उतरा है। संभवतः अन्य समाज सेवी क्लबों की तुलना में परिषद् की भौतिक साधन सम्पन्नता कुछ कम हो सकती है, लेकिन इसके पास सेवाभावी, समर्पित, कर्तव्यनिष्ठ और भारतीय संस्कृति के प्रति संवेदनशील मानवीय संसाधन की एक अमूल्य निधि है, जिससे चिन्तन, दर्शन, प्रकल्प एवं कार्यक्रम सभी स्तरों पर परिषद् का भव्य रूप निखर रहा है, उसकी प्रतिष्ठा समाज में सहज रूप से बढ़ रही है। और निश्चित् ही इस दशक में और आगे आने वाली अवधि में यह संगठन अपने क्रियाकलापों से भारत को वैचारिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में नवीनतम ऊँचाईयों का कीर्तिमान स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करने वाला सांस्कृतिक एवं सेवाभावी संगठन सिद्ध होगा तथा ‘स्वस्थ, समर्थ, समृद्ध एवं संस्कारित भारत’ की परिकल्पना को पूर्ण करने में मील का पत्थर बनेगा।
Procedure
Eligibility For Voters
Explanations
(a) As per Article 17 (ii), the Branch Executive is entitled to nominate one delegate for every additional membership of 50 or part thereof, to the Prantiya Council.Eligibility For The Candidates
Procedure
Eligibility For Voters & Candidates
Bharat ko Jano
Bhilwara | Ajmer | Rajsamand | Total |
25000 | 17000 | 9000 | 51000 |
Guru Vandan
Bhilwara | Ajmer | Rajsamand | Total |
200 | 150 | 100 | 450 |
NGSC
Bhilwara | Ajmer | Rajsamand | Total |
55 | 30 | 15 | 100 |
NSGC
Bhilwara | Ajmer | Rajsamand | Total |
30 | 13 | 7 | 50 |
Blood Donation
Bhilwara | Ajmer | Rajsamand | Total |
2100 | 1500 | 500 | 3500 |
Tree Plan
Bhilwara | Ajmer | Rajsamand | Total |
1000 | 800 | 451 | 2251 |
Tulsi Gamla Vitaran
Bhilwara | Ajmer | Rajsamand | Total |
1000 | 800 | 451 | 2251 |
Vanvasi Sahayata
Bhilwara | Ajmer | Rajsamand | Total |
40000 | 30000 | 11000 | 81000 |
It is dedicated to the development and growth of our country in all fields of human endeavour - cultural, social, academic, moral, national and spiritual - by promoting a sense of patriotism...
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